अपने प्रधानमंत्रित्व काल के तकरीबन 11 वर्षों के दौरान भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी ने इतना मजबूत बना दिया है कि उसके अध्यक्ष जेपी नड्डा को यह कहने में न तो संकोच हुआ और न ही डर लगा कि 'अब भाजपा इतनी शक्तिशाली हो चुकी है कि उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ज़रूरत नहीं रह गयी है'। देश ने अब तक भाजपा के दो ही प्रधानमंत्री देखे हैं- मोदी के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी। तीन बार पीएम का पद सम्हालने वाले वाजपेयी का कार्यकाल हालांकि एक ही बार पूर्णकालिक रहा था (पहले दो बार क्रमश: 13 दिन व 13 माह का)।
अटल बिहारी वाजपेयी 2007 में गोलवलकर शताब्दी समारोह में भाग लेने के दौरान संघ मुख्यालय गए थे, लेकिन तब वह प्रधानमंत्री के पद पर नहीं थे। बतौर प्रधानमंत्री मोदी ने भी 2014 से अब तक यहां आने की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। 11 सालों बाद 2025 में अब कहीं जाकर मोदी ने रविवार को यहां का दौरा किया। वे भवन में स्थित हेडगेवार स्मृति मंदिर भी गये जहां संघ के संस्थापक हेडगेवार तथा दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के स्मारक हैं। इससे पहले मोदी 2013 में यहां आये थे, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। संघ के पदाधिकारी तथा प्रवक्ता इसे 'गैर राजनीतिक यात्रा' बता रहे हैं, लेकिन संघ से वाकई बड़े हो चुके मोदी के यहां आने का मकसद,वह भी इतनी देर से, ढूंढ़ा जा रहा है।
पहली बात यह कही जाती है कि नड्डा के उपरोक्त उल्लेखित बयान के कारण भाजपा तथा संघ के बीच रिश्तों में आई दरार को पाटने मोदी यहां आये थे। इतना ही नहीं, यह भी कयास लगाया जा रहा है कि अगले साल बिहार में होने जा रहे चुनाव पर भी चर्चा हुई होगी। कोई कह सकता है कि इस दौरान जब मोदी ने लोकसभा के तीन और न जाने कितने राज्यों के विधानसभा चुनाव जीत लिये तो अब बिहार का चुनाव जीतने हेतु उन्हें संघ प्रमुख से चर्चा करने के लिये क्योंकर आने की आवश्यकता महसूस हुई होगी। बिहार के बारे में पिछले कुछ समय से भाजपा तथा संघ गम्भीर हैं। वह इस मायने में कि प्रदेश की भाजपा इकाई ने यह कहकर बिहार जीतने की मंशा जाहिर की है कि, 'पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब यहां भाजपा का मुख्यमंत्री बने।' हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार का पांच दिवसीय दौरा किया था। इन सारी बातों को जोड़कर भी देखा जा रहा है। वैसे नड्डा की बात में दम तो है कि संघ के बिना भाजपा को चुनाव जीतना आता है। वे दिन गये कि संघ के असंख्य कार्यकर्ता वर्तमान भाजपा और पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के प्रत्याशियों के लिये चुनावी श्रम करते थे। अब भाजपा कायकर्ताओं के बल पर नहीं वरन केन्द्रीय जांच एजेंसियों- सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, आयकर आदि के जरिये विपक्ष को खत्म कर, ऑपरशन लोटस, केन्द्रीय निर्वाचन आयोग, ईवीएम, इलेक्टोरल बॉंड्स से इक_ी धन राशि, समर्थक मीडिया, आईटी सेल आदि के बल पर चुनाव जीतती है।
वैसे तो जब सक्रिय राजनीति में शामिल या सत्ता में बैठे लोग आरएसएस से दूरी बनाकर रखते हैं, तो यह संघ के उस विमर्श को बढ़ाने में मददगार साबित होता है जिसमें कहा जाता है कि 'संघ एक सांस्कृतिक संगठन है' तथा 'उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है।' हालांकि संघ व भाजपा के अंतर्संबंधों का पर्याप्त खुलासा हो चुका है तथा अब इस बात को बाहरी ही नहीं, खुद दोनों संगठनों के लोग नहीं मानेंगे।
बहरहाल, संघ कार्यालय में उन्होंने अपने 34 मिनट के भाषण में संघ की स्वाभाविकत: भरपूर तारीफ की। उसे 'वटवृक्ष' बताया तथा कहा कि 'संघ उनके जैसे लाखों लोगों को देश के लिये जीने की प्रेरणा है।' फरवरी में मुम्बई में हुए भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए तथा हाल ही में प्रसिद्ध अमेरिकी पॉडकास्टर लेक्स फ्रीडमैन के साथ हुई चर्चा में भी मोदी ने संघ की प्रशंसा की थी तथा अपने जीवन पर संगठन के पड़े प्रभाव को बतलाया था। अपने भाषण में मोदी ने देश में हुई विभिन्न त्रासदियों में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा पीड़ितों को मदद पहुंचाने का ज़िक्र भी किया। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि कोरोना काल में जब लाखों देशवासी ऑक्सीजन, दवाओं तथा बिस्तरों के अभाव में मर रहे थे, उस दौरान अथवा इसी साल जनवरी-फरवरी में प्रयागराज में सम्पन्न हुए महाकुम्भ के दौरान हुई भगदड़ों से प्रभावित लोगों की संघ ने क्या सेवा की। हालांकि अब यह सर्वज्ञात है कि संघ की भूमिका व योगदान सिफर ही था। हां, इस दौरान वे हिन्दू-मुस्लिम खाई चौड़ी करने में पहले की तरह ही सक्रिय थे।
अपनी नागपुर यात्रा के दौरान पीएम ने दीक्षाभूमि के दर्शन भी किये। उल्लेखनीय है कि इसी स्थान पर संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर ने 1956 में अपने लाखों अनुयायियों को बौद्ध धर्म में प्रविष्ट कराया था। वह एक ऐतिहासिक घटना तो है लेकिन मोदी का वहां जाना मार्के की बात है, क्योंकि संघ का अंबेडकर, उनके संविधान, खासकर आरक्षण के कारण प्रबल बैर रहा है- वह भी आरम्भ से ही। हालिया दौर में संविधान का मुद्दा भारतीय राजनीति के केन्द्र में आ गया है। 2024 के चुनाव में भाजपा 400 सीटें चाहती थी ताकि संविधान बदला जाये। जब इसी मुद्दे ने भाजपा को अल्पमत में ला दिया व दूसरे दलों की मदद से उसे सरकार बनानी पड़ी, तो मोदी व भाजपा को खुद को संविधान का रक्षक साबित करना ज़रूरी हो गया है। इसी विमर्श ने मोदी को दीक्षाभूमि में ला खड़ा किया। सिर्फ संघ कार्यालय या केवल दीक्षाभूमि जाते तो दोनों ही स्थितियों में उन्हें अड़चन होती। उनकी नागपुर यात्रा संतुलन बनाने की कवायद है।